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आजादी की लड़ाई: केमेस्ट्री की वो छात्रा जिसने क्रांतिकारियों को सिखाया था डायनामाइट बनाना, 1930 का साल जो बना टर्निंग प्वाइंट

आजादी की लड़ाई में शामिल होने वाली रानी लक्ष्मी बाई एकलौती महिला लड़ाकू नहीं थी. महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन की शुरुआत की.  इस आंदोलन में देश की महिलाओं ने बड़े पैमाने पर हिस्सा लिया. साल 1857 का विद्रोह अंग्रेजों के चूलें हिला चुका था. उत्तर प्रदेश के मेरठ में ईस्ट इंडिया कंपनी के सिपाहियों के विद्रोह के रूप में शुरू हुई ये जंग पूरे भारत में फैल गई. पहली बार ब्रिटिश साम्रज्य के सूर्य पर आजादी के लिए मतवाले सैनिकों ने ग्रहण लगा दिया. इस लड़ाई में न सिर्फ पुरुष राजाओं ने बल्कि रानियों ने भी तलवार उठाई थी. इसमें रानी लक्ष्मी बाई और बेगम हजरत महल का नाम सबसे ऊपर आता है. झांसी से लेकर अवध तक अंग्रेज इन वीरांगनाओं के प्रताप को देखकर हैरान थे.

रानी लक्ष्मीबाई शहीद हो गईं और बेगम हजरत महल नेपाल पहुंच गईं. इतिहासकार सीए किंकेड झांसी की रानी के बारे में लिखते हैं, “मैं उन्हें एक युवा और बहादुर महिला मानता हूं, जो अपने नियंत्रण से परे ( एक औरत के रूप में) होने वाली घटनाओं में मजबूती से लड़ती रहीं. आजादी की लड़ाई में शामिल होने वाली रानी लक्ष्मी बाई एकलौती महिला लड़ाकू नहीं थी. महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन की शुरुआत की.  इस आंदोलन में देश की महिलाओं ने बड़े पैमाने पर हिस्सा लिया. शुरुआत में ये महिलाएं शराब की दुकानों को बंद कराने के लिए धरना दिया करती थीं’.  1921 में सीआर दास ने बंगाल में नारी कर्मा मंदिर की शुरुआत की, जिसमें महिलाओं को कई तरह की ट्रेनिंग दी जाती थी. इसे गांधी जी के असहयोग आंदोलन का हिस्सा माना जाता था. बसंती देबी, उर्मिला देबी, सुनीती देबी असहयोग आंदोलन के समय बड़ा नाम बन कर उभरीं.

कमलादेवी चट्टोपाध्याय असहयोग आंदोलन के समय उभरा एक बड़ा नाम थी. कमलादेवी ने 1921 असहयोग आंदोलन का हिस्सा बनीं. 1925 में सरोजनी नायडू इंडियन नेशनल कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गईं. नायडू  इस ओहदे को पाने वाली पहली भारतीय महिला भी बनीं. 1926 में ऑल इंडिया वूमेन कांफ्रेंस की शुरुआत हुई जिसका मकसद महिलाओं को अच्छी शिक्षा देना था. इसने जल्द ही एक राजनीतिक उथल-पुथल का रूप ले लिया.

गांधी के असहयोग आंदोलन के अलावा कई ऐसे आंदोलनों की शुरुआत हुई जिसमें महिलाओं ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. सरला देवी घोषाल एक ऐसा ही नाम हैं इन्होंने आजादी की लड़ाई में सीधे तौर पर हिस्सा तो नहीं लिया लेकिन महिलाओं के अलावा पुरुषों को अखाड़ा सिखाने का काम इन्होंने किया. वह महात्मा गांधी, दुर्गाबाई देशमुख, आचार्य कृपलानी, कमलादेवी चट्टोपाध्याय और सरोजिनी नायडू के बहुत करीब थीं. सरला देबी ने कई महिलाओं के समुह को आजादी की लड़ाई के लिए तैयार किया.  साल 1930 से पहले तक कई महिलाओं ने बड़े पैमाने पर आजादी की लडा़ई में हिस्सा ले चुकी थीं. लेकिन साल 1930 का दशक आजादी की लड़ाई का सबसे बड़ा टर्निंग प्वाइंट बना.

मशहूर सोशल सांइटिस्ट मानीनी चटर्जी ने एक लेख में साल 1930 को स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की भागीदारी का एक महत्वपूर्ण मोड़ बताया. उनके अनुसार 1930 से पहले केवल मुट्ठी भर महिलाएं शामिल थीं, लेकिन 1930 के बाद से महिलाएं न केवल बड़े शहरों में बल्कि छोटे शहरों और गांवों से भी बड़े पैमाने पर जंगे-आजादी में शामिल हो गईं.

चटर्जी के मुताबिक यह महात्मा गांधी द्वारा महिलाओं को आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रत्यक्ष और सक्रिय प्रोत्साहन का नतीजा था. यह सिर्फ गांधीवादी आंदोलन नहीं था. महिलाओं ने क्रांतिकारी आंदोलन में भी अपनी जगह बनाई.  क्रांतिकारी महिलाओं ने हथियार उठाए और पीछे नहीं रहने का दृढ़ संकल्प लिया. प्रीतिलता वद्दादर भारतीय स्वतंत्रता संगाम की महान क्रान्तिकारों में से एक थीं. इनके बारे में चटर्जी ने अपने लेख में लिखा कि प्रीतिलता वद्दादर ने अपनी मौत से पहले कहा था, ‘महिलाएं दृढ़ हैं कि वे अब पीछे नहीं रहेंगी और किसी भी गतिविधि में अपने भाइयों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी रहेंगी, चाहे वह कितना ही खतरनाक या कठिन क्यों न हो. मुझे पूरी उम्मीद है कि मेरी बहनें अब खुद को कमजोर नहीं समझेंगी और सभी खतरों और कठिनाइयों का सामना करने के लिए खुद को तैयार करेंगी और हजारों की संख्या में क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल होंगी’.

मानीनी चटर्जी चटर्जी लिखती हैं कि गांधीजी का ये मानना था कि महिलाएं शांति पसंद करती है, वे हिंसा और खून-खराबा नहीं होने दे सकती. महिलाएं त्याग भी कर सकती हैं और लड़ाई भी कर सकती हैं.  चटर्जी ने आगे लिखा कि महिलाएं सिर्फ इसलिए नहीं चुनी गईं क्योंकि वो त्याग कर सकती थीं, या वो हिंसा को नापसंद करती थी. महिलाओं ने 1930 की लड़ाई में बंदूक भी उठाई. गांधी जी ने डांडी मार्च की शुरुआत की थी इसके महज दो सप्ताह बाद चटगांव शस्त्रागार लूट (चटगांव आर्मी रेड) 18 अप्रैल 1930 को हुआ.

18 अप्रैल 1930 को भारत के महान क्रान्तिकारी सूर्य सेन के नेतृत्व में सशस्त्र भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा चटगांव (अब बांग्लादेश में) में पुलिस और सहायक बलों के शस्त्रागार पर छापा मार कर उसे लूटने का प्रयास किया गया था. इसे चटगांव शस्त्रागार छापा या चटगांव विद्रोह के नाम से जाना जाता है.

सभी छापेमार क्रांतिकारी समूहों के सदस्य थे, जिन्होंने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से भारत को आजाद कराने के सशस्त्र विद्रोह का पक्ष लिया था. इस समूह में गणेश घोष, लोकेनाथ बाल, अंबिका चक्रवर्ती, हरिगोपाल बाल (तेग्रा), अनंत सिंह, आनंद प्रसाद गुप्ता, त्रिपुरा सेन, बिधुभूषण भट्टाचार्य, हिमांशु सेन, बिनोद बिहारी चौधरी, सुबोध रॉय और मोनोरंजन भट्टाचार्य , प्रीतिलाता वद्देदार, कल्पना दत्ता, शामिल थीं.

कल्पना दत्ता कमेस्ट्री का स्टूडेंट थी. विद्रोह में शामिल होने के लिए वो सूटकेस में भर के एसिड लातीं और गन कॉटन और डायनामाइ़ट बनाने की ट्रेनिंग दिया करती थीं. बाद में उन्होंने खुद को अंडरग्राउंड कर लिया था. लेकिन इससे पहले उन्होंने महिला और पुरुष दोनों को ही ट्रेनिंग दी.  बता दें कि भारतीय स्वतंत्रता संगाम की महान क्रान्तिकारी प्रीतिलता वद्दादर ने कल्पना दत्ता से डायनामाइ़ट बनाने की ट्रेनिंग लेती थी, वो प्रीतीलता साहित्य की छात्रा थीं. इन्होंने भी खुद को कल्पना के साथ अंडरग्राउंड कर लिया. प्रीतिलता खुद को एक शहीद का दर्जा देना चाहती थीं और उन्होंने अंडरग्राउंड रहने के दौरान सायनाइड खा कर मौत को गले लगा लिया. लेकिन वो अंग्रेजों के सामने झुकी नहीं. इस विद्रोह के दौरान उनकी कई साथियों की भी मौत हुई थी. इस तरह 1930 की जंग में दो तरह से भारतीय महिलाओं ने आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभाई थी. पहला पर्दे के पीछे से और दूसरा सीधे-सीधे लड़ाई में शामिल होकर.

आजादी के 17 साल पहले मनाया गया था आजादी का जश्न

सविनय अवज्ञा आंदोलन के महत्व पर जोर देते हुए इतिहासकार रामचंद्र गुहा इंडिया आफ्टर गांधी में लिखते हैं, “भारत को आजादी 15 अगस्त 1947 को मिली, लेकिन देशभक्ति से भरपूर भारतीयों ने अपना पहला स्वतंत्रता दिवस 17 साल पहले ही मना लिया था.  जनवरी 1930 के पहले सप्ताह में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पुणे स्वराज या पूर्ण स्वतंत्रता के समर्थन में देशव्यापी प्रदर्शनों के लिए एक प्रस्ताव पारित किया. महसूस किया गया कि यह राष्ट्रवादी आकांक्षाओं को बढ़ाएगा और अंग्रेजों को सत्ता छोड़ने पर गंभीरता से विचार करने के लिए मजबूर करेगा.

26 जनवरी 1930 को एक सार्वजनिक घोषणा की गई – एक दिन जिसे कांग्रेस पार्टी ने भारतीयों से ‘स्वतंत्रता दिवस’ के रूप में मनाने का आग्रह किया. भारत के लिए डोमिनियन स्टेटस के सवाल पर स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं और अंग्रेजों के बीच बातचीत टूटने के कारण घोषणा पत्र पारित किया गया था.

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